महफ़िल में इक रोज़ ,
बैठे थे गैरों की हम ,
कोई दोस्त नज़र नहीं आया ,
बस यही था गम ,
फिर इक दिन महफ़िल ,
थी दोस्तों की लगी ,
क्या ये ही हैं अपने ? ,
भावना मन में जगी ,
अपने और गैर में ,
भेद कर न पाया ,
अपनों से भी अधिक गैर ,
अच्छा और सच्चा नजर आया ,
ये गैर ही हैं जो जीवन की ,
वास्तविकता दर्शाते हैं ,
गैर ही कंटीले राहों पे ,
चलना सिखाते हैं ,
गैर जो करते हैं ,
सरे - आम करते हैं ,
अपने ही हैं जो ,
छिप कर बदनाम करते हैं ,
दिल ने कहा अपने तो ,
फिर भी अपने होते हैं ,
गैरों के भरोसे तो बस ,
आखिर गैर हैं कौन ,
ये प्रकृति भी है मौन ,
जान कर भी सर्वस्व ,
मैं इतना अनजान हूँ ,
संगमरमर सी मूक ,
शिला की पहचान हूँ ,
अस्थि -युग ने ये आजमाया है ,
जगत मोह -माया ने भरमाया है,
अकेले आये अकेले जाना ,
सब कुछ यहीं धरा -धराया है ,
अपना यहाँ पे कुछ नहीं "कायत",
जो है सब पराया है .,
ये गैर ही हैं जो जीवन की ,
जवाब देंहटाएंवास्तविकता दर्शाते हैं ,
गैर ही कंटीले राहों पे ,
चलना सिखाते हैं ,
बेहतरीन प्रस्तुति | गैरों से वाकई बहुत कुछ सीखने को मिलता है |
बहुत खूबसूरती से पूरा जीवन दर्शन कह दिया ...सुन्दर अभिव्यक्ति
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