आरजू

            आरजू 

चमकती रेत  में
पानी का सिर्फ धोखा था 
मैंने समझा मेरा हमदम है 
पर वह तो हवा का झौंका था 
जिसकी दस्तक 
सुन कर मैं चौंका था 
जिनके दीदार को 
तरसती थी आँखें 
जो होते वो सामने 
तो खिल जाती थी बाँछे 
पर जाने वाले 
कब मुड़  कर आते हैं 
उन संग बिताये लम्हें ही 
दिल को तड़पाते हैं 
छुपाने का लाख 
प्रयत्न करते हैं 
पर ये ग़म 
कहाँ छुप पाते हैं 
इन्हीं विचारों में डूब 
ख्यालों में खो गया 
आरजू लिए मिलन की 
"कायत " 
गहन निद्रा में सो गया ...


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें